मंगलवार, 17 नवंबर 2009

मन संकल्पात्मक होता है। मन का संकल्प कल्याणकारी हो सकता है और अकल्याणकारी भी

मन जो कहता है ,बस वो कहता है !
किसी बंधन में ये न बंधना चाहे ,किसी बचपन की हँसी हो जैसे ,
किसी रिश्ते का जो कुछ नाम हो,उसकी करता है इबादत जैसे !

मन संकल्पात्मकहोता है। मन कासंकल्पकल्याणकारी हो सकता है औरअकल्याणकारी भी। जब मन अधोगति की ओर बढ़ता हैतो जैसे जल-प्रवाह की अधोगति होती है उसी तरह संतापकारी संकल्पों को स्थान देने से हमारे अंदर गलत विचार उत्पन्न होते हैं और मन अधोगति की ओर बढ़ने लगता है। इसी संतापकारी भावनाओं से कुसंस्कारित जनों का साथ होने से हमारा मन इन्हीं कुत्सित विचारों और दुर्भावनाओं में भटकने लगता है। परिणामस्वरूप हम अध:पतन की ओर बढ़ने लगते हैं। हमारे मन के तराजू पर हर विचार और भावनाओं को तौलें जिससे विवेकपूर्वक तदर्थ श्रेष्ठ संस्कार, सद्विचार और सदाचरण हमें सही रास्ता दिखायेंगे। हमें अपने मन के केवल मनन करने से नहीं, अपितु अच्छे आचरण और श्रेष्ठ विचारों तथा सत्संग से कार्य का निष्पादन करना ही तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु है। गीता में कहा गया है कि मानव का मन वायु के प्रचंड वेग की तरह अत्यन्त बलवान होता है जिसे रोक पाना बहुत कठिन होता है। हमें चंचल मन के वेगों को रोकना चाहिए और मेरा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो, ऐसी कामना से हम देश का, समाज का और मानव का कल्याण कर सकेंगे। साथ ही पुरुषार्थ चतुष्टय के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकेंगे।